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कश्मीरी पंडितों की हत्याओं की SIT जांच की मांग वाली याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने विचार करने से किया इनकार

सुप्रीम कोर्ट ने कश्मीरी पंडितों की हत्या और पलायन को लेकर दायर की गई याचिका पर सुनवाई से इनकार कर दिया है। कोर्ट ने याचिकाकर्ता को याचिका वापस लेने और उचित उपाय तलाशने की अनुमति दी। याचिका टीका लाल टपलू के बेटे आशुतोष टपलू ने दायर की। टीका लाल टपलू को जेकेएलएफ आतंकवादी ने 1989 में मौत के घाट उतार दिया था।

सुप्रीम कोर्ट की सलाह पर आशुतोष टपलू ने अपनी याचिका वापस ले ली। उनके द्वारा दायर याचिका में कहा गया था कि 32 साल बीत गए हैं, परिवार को यह भी नहीं पता कि मामले में किस तरह की जांच हुई। परिवार को एफआईआर की कॉपी तक नहीं दी गई।

पहले भी सुनवाई से हो चुका है इनकार

इससे पहले भी सुप्रीम कोर्ट ने कश्मीरी पंडितों की हत्याओं की एसआईटी से जांच कराने की मांग को लेकर दायर याचिका पर विचार करने से इनकार कर दिया। न्यायमूर्ति बी.आर. गवई और सी.टी. रविकुमार ने एनजीओ ‘वी द सिटिजन्स’ का प्रतिनिधित्व कर रहे वकील से केंद्र सरकार के समक्ष शिकायतें उठाने के लिए कहा।

याचिकाकर्ता का प्रतिनिधित्व कर रहे अधिवक्ता बरुन कुमार सिन्हा ने पीठ से कश्मीरी पंडितों की दुर्दशा को उजागर करने वाली उनकी दलीलों पर सुनवाई करने का आग्रह किया। पीठ ने कहा कि उन्हें केंद्र से संपर्क करना चाहिए। मामले में संक्षिप्त सुनवाई के बाद याचिकाकर्ता के वकील ने याचिका वापस लेने पर सहमति जताई। पीठ ने वकील को केंद्र सरकार और संबंधित अधिकारियों के समक्ष एक प्रतिनिधित्व करने की अनुमति दी।

याचिका में घाटी से पलायन करने वालों के पुनर्वास के लिए निर्देश देने और 1989-2003 के बीच हिंदू और सिख समुदायों के नरसंहार को बढ़ावा देने वालों की पहचान करने के लिए एसआईटी गठित करने की मांग की गई थी। ‘रूट्स इन कश्मीर’ द्वारा दायर एक क्यूरेटिव पिटीशन भी सुप्रीम कोर्ट में लंबित है, जिसमें 1989-90 के दौरान कश्मीरी पंडितों की कथित सामूहिक हत्याओं और नरसंहार की सीबीआई या राष्ट्रीय जांच एजेंसी (एनआईए) से जांच कराने की मांग की गई।

संगठन की ओर से जारी एक बयान में कहा गया है कि क्यूरेटिव पिटीशन के समर्थन में वरिष्ठ अधिवक्ता और सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष विकास सिंह द्वारा एक प्रमाण पत्र जारी किया गया है। क्यूरेटिव पिटिशन में सिख विरोधी दंगों के मामले में सज्जन कुमार पर 2018 के दिल्ली हाईकोर्ट के आदेश का भी हवाला दिया गया है।

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