देशद्रोह कानून की संवैधानिक वैधता पर 5 मई को सुनवाई करेगा सुप्रीम कोर्ट, केंद्र से इस हफ्ते तक मांगा जवाब
सुप्रीम कोर्ट ने 5 मई को राजद्रोह कानून की वैधता पर अंतिम सुनवाई करेगा. पिछले साल कोर्ट ने कानून के दुरुपयोग पर चिंता जताते हुए केंद्र से जवाब मांगा था. आज केंद्र की तरफ से सॉलिसिटर जनरल ने कहा कि जवाब तैयार है. 2 दिन में दाखिल कर दिया जाएगा. कोर्ट ने इसी हफ्ते जवाब दाखिल करने को करते हुए कहा कि 5 मई को सुनवाई नहीं टाली जाएगी. पूरा दिन मामला सुना जाएगा.
क्या है राजद्रोह कानून?
आईपीसी की धारा 124A का मतलब है सेडिशन यानी कि राजद्रोह. अगर कोई अपने भाषण या लेख या दूसरे तरीकों से सरकार के खिलाफ नफरत फैलाने की कोशिश करता है तो उसे तीन साल तक की कैद हो सकती है. कुछ मामलों में ये सजा उम्रकैद तक हो सकती है. यहां ये साफ करना ज़रूरी है कि सरकार का मतलब संवैधानिक तरीकों से बनी सरकार से है, न कि सत्ता में बैठी पार्टी या नेता.
भारत का संविधान बनाए जाते समय संविधान सभा के कुछ सदस्यों ने अंग्रेजों के ज़माने के इस कानून पर सवाल उठाए थे. इसे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के खिलाफ माना था. लेकिन उस वक़्त संविधान सभा अभिव्यक्ति के अधिकार को पूरी तरह से खुला छोड़ना सही नहीं माना.
संविधान बनाने वालों ने अनुच्छेद 19 (2) के तहत इस अधिकार की सीमाएं तय कर दीं. इसके तहत भारत की संप्रभुता को नुकसान पहुँचाने वाले बयान मौलिक अधिकार का हिस्सा नहीं माने गए. भारत के पहले प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने बाद में कई बार आईपीसी की धारा 124A को हटाए जाने की वकालत की. इसे अपना निजी विचार बताया.
सुप्रीम कोर्ट के पुराने फैसले
राजद्रोह पर 1962 में सुप्रीम कोर्ट ने ऐतिहासिक फैसला दिया था. केदारनाथ सिंह बनाम बिहार मामले में सुप्रीम कोर्ट ने वैसे तो इस धारा को बनाए रखा. उसे असंवैधानिक घोषित कर रद्द कर देने से मना कर दिया. लेकिन इस धारा की सीमा तय कर दी. कोर्ट ने साफ कर दिया कि सिर्फ सरकार की आलोचना करना राजद्रोह नहीं माना जा सकता. जिस मामले में कुर्सी भाषण या लेख का मकसद सीधे सीधे सरकार या देश के प्रति हिंसा भड़काना हो, उसे ही इस धारा के तहत अपराध माना जा सकता है. बाद में 1995 में बलवंत सिंह मामले में सुप्रीम कोर्ट ने खालिस्तान के समर्थन में नारे लगाने वाले लोगों को भी इस आधार पर छोड़ दिया था कि उन्होंने सिर्फ नारे लगाए थे.
दुरुपयोग पर कोर्ट के सवाल
सुप्रीम कोर्ट में इस कानून के खिलाफ मणिपुर के पत्रकार किशोरचन्द्र वांगखेमचा, छत्तीसगढ़ के पत्रकार कन्हैयालाल शुक्ला, सेना के रिटायर्ड मेजर जनरल एस जी बोम्बतकरे, एडिटर्स गिल्ड सहित 8 याचिकाएं लंबित हैं. पिछले साल 15 जुलाई को चीफ जस्टिस की अध्यक्षता वाली बेंच ने कहा था कि इस कानून का उपयोग अंग्रेजों ने महात्मा गांधी और बाल गंगाधर तिलक जैसे नेताओं के खिलाफ किया था. आश्चर्य है कि आजादी के लगभग 75 साल बाद भी सरकार इस कानून को बनाए रखने की ज़रूरत समझती है.
‘लकड़ी की बजाय पूरा जंगल काटने जैसा कानून’
चीफ जस्टिस ने आगे कहा था, “यह कानून ऐसा है जैसे किसी बढ़ई को लकड़ी का एक टुकड़ा काटने के लिऐ आरी दी गई और वह पूरा जंगल काटने लग गया. सरकार कई पुराने कानूनों को खत्म कर रही है. राजद्रोह कानून पर अब तक उसका ध्यान क्यों नहीं गया?” सुनवाई के दौरान एटॉर्नी जनरल के के वेणुगोपाल ने कोर्ट की चिंता से सहमति जताते हुए कहा था, “निश्चित रूप से इस कानून के दुरुपयोग पर रोक लगनी चाहिए. इसे सिर्फ देश की सुरक्षा और लोकतांत्रिक संस्थाओं को सीधे आघात पहुंचाने के मामलों तक सीमित रखने की ज़रूरत है.”
सरकार ने दिए कानून में बदलाव के संकेत
केंद्र की तरफ से कोर्ट का नोटिस स्वीकार करते हुए सॉलिसिटर जनरल तुषार मेहता ने भी संकेत दिए थे कि सरकार इस कानून का दुरुपयोग रोकने के लिए कदम उठाना चाहती है. मेहता ने कहा, “सरकार की तरफ से जवाब दाखिल होने दीजिए. कोर्ट की बहुत सारी चिंताएं कम हो जाएंगी.”