16 दिसम्बर 2012 की रात दिल्ली में एक बेटी निर्भया के साथ हुई वहशियाना दरिंदगी ने पूरे जनमानस को झकझोर कर रख दिया था । पीडिता के साथ हुई हैवानियत जहां एक ओर मानवता के मुख पर कालिख लगा गयी वहीं दूसरी ओर सभ्य समाज को शर्मसार कर गयी । मानवता के लिये उस काले दिन एक मासूम बेटी को हवस के भेडियों ने नोच डाला था। असहनीय दर्द सहती वो बेटी जिंदगी और मौत के बीच हफ्तों झूलती रही और अंततः मौत ने उसे अपनी आगोश में लेकर पीडिता के जिस्मानी दर्द ख़त्म कर दिये । मगर जो जख्म ,जो धब्बे सभ्य समाज पर लगे उसे आज तक नही मिटाया जा सका है । आज भी रोजाना सैकडों निर्भया हैवानो की हवस का शिकार हो रही है । हमारा सरकारी तंत्र और पुरुष प्रधान समाज अपनी बहन-बेटियों को सुरक्षा तक देने में नाकाम साबित हुआ है । जिसका एक कारण लचर कानून व्यवस्था तो है ही साथ ही लोगों द्वारा पीडिता का दर्द दोषियों का धर्म देखकर महसूस करना है । क्या किसी विशेष धर्म की बलात्कार पीडिता बेटी को कम या ज्यादा दर्द का सामना करना पड़ता है । कैसी मानसिकता हो गयी है लोगों की जो पीडिता या दोषियों का धर्म देखकर आवाज़ उठायी जाती है । क्या यही है गांधी के सपनों का भारत ? क्या यही है भगत सिंह के सपनों का देश जिसकी आजादी के लिये वो फांसी पर झूल गये ।क्या यही है अम्बेडकर का सर्वधर्म सद्भाव वाला भारत ? ये कहां आ गये है हम ? जगतजननी औरत का हम सम्मान नही कर सकते तो हमें मर्द कहलाने का कोई अधिकार नही । निर्भया कांड को 9 साल पूरे होने पर आओ हम सब यह संकल्प लें… बेटियों के लिये सुरक्षित माहौल बनाना ही हमारा लक्ष्य होगा यही निर्भया को हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी
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