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दलाई लामा दो साल बाद पहली बार धर्मशाला में सार्वजनिक रूप से आए सामने

बौद्ध धर्मगुरु दलाई लामा दो साल बाद पहली बार शुक्रवार को श्रद्धालुओं से रूबरू हुए। 2019 के बाद यह उनका पहला सार्वजनिक प्रवचन रहा। जहां दलाई लामा ने जातक कथाएं सुनाईं। कोरोना काल में वह भक्तों को ऑनलाइन ही संबोधित कर रहे थे। मुख्य बौद्ध मंदिर मैक्लोडगंज में कार्यक्रम हुआ। जिसमें देश-विदेश से उनके भक्त और अनुयायी शामिल हुए।

उन्होंने कहा कि उनका नियमित स्वास्थ्य जांच के लिए दिल्ली जाने का कार्यक्रम था, लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया क्योंकि उनका स्वास्थ्य अच्छा है। कोरोना महामारी के दौरान वे ऑनलाइन रहकर अपनी शिक्षाएं व अन्य देशों के लोगों से संवाद जारी रखे हुए थे।

जानिए कौन हैं दलाई लामा
तिब्बत में एक इलाका है टक्सटर। ये वही इलाका है जहां आज से 85 साल पहले 6 जुलाई 1935 को ल्हामो दोंडुब का जन्म हुआ था। दरअसल, ल्हामो दोंडुब बौद्धों के 14वें दलाई लामा हैं और दुनिया उन्हें ल्हामो दोंडुब से कम और दलाई लामा के नाम से ज्यादा जानती है। ल्हामो दोंडुब जब 6 साल के थे, तभी 13वें दलाई लामा थुबतेन ग्यात्सो ने उन्हें 14वां दलाई लामा घोषित कर दिया था।

इतनी कम उम्र में ही उन्हें दलाई लामा घोषित करने के पीछे भी एक खास वजह है। बताया जाता है कि 1937 में जब तिब्बत के धर्मगुरुओं ने दलाई लामा को देखा तो पाया कि वो 13वें दलाई लामा थुबतेन ग्यात्सो के अवतार थे। इसके बाद धर्मगुरुओं ने दलाई लामा को धार्मिक शिक्षा दी।

दलाई लामा और चीन के संबंध
दलाई लामा और चीन के संबंध कभी भी अच्छे नहीं रहे। दोनों का एक लंबा इतिहास भी है। 1357 से 1419 तक तिब्बत में एक धर्मगुरु हुए, जिनका नाम जे सिखांपा था। इन्होंने 1409 में तिब्बत में एक स्कूल शुरू किया। नाम रखा जेलग स्कूल। इसी स्कूल में एक होनहार छात्र थे गेंदुन द्रुप। आगे चलकर गेंदुन ही पहले दलाई लामा बने।

बौद्ध धर्म में लामा का मतलब होता है गुरु। बौद्ध दलाई लामा को अपना गुरु मानते हैं और उनकी कही हर बात को मानते हैं। 1630 के दशक में बौद्धों और तिब्बतियों के बीच नेतृत्व को लेकर लड़ाइयां शुरू हो गई थीं। आखिरकार 5वें दलाई लामा तिब्बत को एक करने में कामयाब रहे।

13वें दलाई लामा ने 1912 में तिब्बत को स्वतंत्र घोषित कर दिया। उस समय तो चीन ने कोई आपत्ति नहीं जताई, लेकिन करीब 40 साल बाद जब चीन में कम्युनिस्ट सरकार बनी, तब चीन के लोगों ने तिब्बत पर हमला कर दिया। उस हमले में तिब्बतियों को कोई कामयाबी नहीं मिली।

जब तिब्बत पर हमला हुआ था, तब चीन में माओ त्से तुंग के नेतृत्व वाली कम्युनिस्ट सरकार थी। माओ त्से तुंग ही थे, जिनके सत्ता में आते ही चीन विस्तारवाद पर उतर आया।

चीन दलाई लामा को अलगाववादी मानता है और शुरू से ही उसका मानना है कि दलाई लामा उसके लिए बड़ी समस्या हैं। यही वजह है कि दलाई लामा जब भी किसी देश की यात्रा पर जाते हैं, तो चीन आधिकारिक बयान जारी कर इस दौरे पर आपत्ति जताता है। यहां तक कि दलाई लामा अगर अमेरिका गए हैं, तो भी चीन आपत्ति जता देता है। हालांकि, 2010 में उस समय के अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने चीन के विरोध के बावजूद दलाई लामा से मुलाकात की थी।

जब चीन से बचकर भारत भागकर आए दलाई लामा
1956 में चीन के उस समय के प्रधानमंत्री झाऊ एन-लाई भारत दौरे पर आए थे। उनके साथ दलाई लामा भी आए थे और दोनों ने उस समय के भारतीय प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू से भी मुलाकात की थी। कहा जाता है कि उस समय दलाई लामा ने नेहरू के सामने तिब्बत की आजादी की बात छेड़ दी, लेकिन नेहरू ने उन्हें समझाया कि वो तिब्बत की आजादी की बात छोड़कर उसकी स्वायत्ता की चाह रखें।

भारत दौरे के कुछ साल बाद चीन की सरकार ने दलाई लामा को बीजिंग बुलाया। साथ ही शर्त भी रखी कि वो अकेले ही आएं। यानी उनके साथ न कोई सैनिक आए, न कोई बॉडीगार्ड और न ही कोई उनका समर्थक। उस समय दलाई लामा के एक ऑस्ट्रेलियाई दोस्त भी थे। नाम था हेंरिच्क हर्रेर। हेंरिच्क ने उन्हें सलाह दी कि अगर वो बीजिंग अकेले गए, तो उन्हें हमेशा के लिए पकड़ लिया जाएगा।

मार्च 1959 में दलाई लामा सैनिक के वेश में तिब्बत से भागकर भारत आ गए। उन्हें भारत आने में 14 दिन का वक्त लगा था। दलाई लामा अरुणाचल प्रदेश के त्वांग को पार कर भारत आए थे। इसके बाद अप्रैल 1959 में भारत ने दलाई लामा को शरण दी। जिस वक्त उन्हें शरण दी गई, उस वक्त उनकी उम्र महज 23 साल थी।

 

1962 की लड़ाई के पीछे दलाई लामा को शरण देना भी एक वजह
भारत के आजाद होते ही और चीन में कम्युनिस्ट सरकार के बनते ही सीमाओं को लेकर चीन-भारत के बीच विवाद शुरू हो गए थे। 1957 में चीन के एक अखबार में छपा कि दुनिया का सबसे ऊंचा हाईवे शिन्जियांग से लेकर तिब्बत के बीच बनकर तैयार है। भारत को भी इसकी जानकारी अखबार से ही मिली। इस हाईवे की सड़क अक्साई चिन से भी गुजरी, जो भारत का हिस्सा था।

इस पर उस समय के प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने झाऊ एन-लाई को पत्र भी लिखा, लेकिन झाऊ ने सीमा विवाद का मुद्दा उठा दिया। उसके बाद 1959 में दलाई लामा को भी भारत ने शरण दे दी। इससे चीन और बौखला गया।

1962 में जब भारत और चीन के बीच युद्ध हुआ, तो उसकी कई वजहें भी सामने आई थीं। एक वजह ये भी थी कि चीन के सैनिक भारतीय इलाकों में घुस आए थे और इन सैनिकों को वापस लौटाने के लिए चीन ने एक शर्त रखी। ये शर्त थी नया व्यापारिक समझौता। भारत ने इस व्यापारिक समझौते पर हस्ताक्षर करने से मना कर दिया और कहा कि चीन जब तक 1954 की स्थिति पर नहीं आता, तब तक कोई समझौता नहीं होगा।

उसके बाद 13 सितंबर 1962 को चीन ने फिर प्रस्ताव रखा कि अगर भारत हस्ताक्षर करने को तैयार होता है, तो उसकी सेना 20 किमी पीछे जाने को तैयार है। भारत इस पर तैयार भी हो गया, लेकिन चीन ने हमला कर दिया।

1962 की लड़ाई के बाद स्वीडन के एक पत्रकार बेर्टिल लिंटर की एक किताब आई थी। इस किताब का नाम था “चाइनीज वॉर विद इंडिया’। इस किताब में लिंटर ने लिखा कि उस समय चीन की हालत बहुत खराब हो गई थी। वहां अकाल पड़ गया था। इससे तीन से चार करोड़ लोग मारे गए थे। इन सबसे ध्यान भटकाने के लिए माओ त्से तुंग ने भारत के रूप में एक नया बाहरी दुश्मन खोजा और इस सबमें मदद की दलाई लामा ने। दलाई लामा को शरण दिए जाने से चीन में आक्रोश था और चीन की सरकार तो पहले ही इससे बौखला गई थी। दलाई लामा को शरण देने के वजह से भी चीन भारत को सबक सिखाना चाहता था।

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